Monday, April 20, 2020

कोशिश थी हवाओं की
हमें पत्तों की तरह उडाने की,
साजिश थी ज़माने की
हमें हर वक्त आजमाने की,
साथ किसी का मिल न सका कभी,
पर आदत हमारी थी हर बार जीत जाने की.
यकीन था ख़ुद पर,
कुछ कर गुजरने की ठानी थी,
दीवानगी जो थी मंजिल को पाने की,
उसे जूनून अपना बनाने की
आदत हमारी थी.
राह जो चुनी थी हमने अपनी,
हर मोड़ पर मिली मुश्किलों की सौगात थी,
हर छोर पर गुलशन खिला दिए हमने,
कांटो से भी यारी की,
आदत हमारी थी.
ढल चुका था सूरज,
अब चाँद से मुलाक़ात की बारी थी,
ख्वाब जो देखे थे इन बंद आंखों ने,
हकीक़त उन्हें बनाने की,
आदत हमारी थी.

Friday, April 10, 2020

हम होंगे कामयाब


           ફરી છાસ વલોવી ને માખણ માંથી ઘી બન્યું,
                ને બઝાર નું બટર ને ચીઝ બંધ થયું.

                  ફરી દાળ પલાળી ને ખીરું બન્યું,
                  ને બઝાર નું વાસી ખીરું બંધ થયું.

                ફરી ઘઉં ને બાજરા ના રોટલા બન્યા,
                ને બઝાર ના પાંઉ ને પીઝા બંધ થયા.

                      કોણ કહે છે કે આ રોગ છે,
                આ તો નીરોગી રહેવાનો સંજોગ છે.

Friday, February 14, 2020

तू नज़्म नज़्म सा मेरे, होठों पे ठहर जा
मैं ख़्वाब ख़्वाब सा तेरी, आँखों में जागु रे...

 तुमको चुराकर ले चलूँ कहीं दूर,
 किसी ऐसी जगह जहाँ न कोई  शोर हो, न कोई खलेल.. 
बस एक पहाड़ी, 
पहाड़ी के पास वो बहती नदी, 
बहती नदी के किनारे वो एक बड़ा सा पत्थर,
 उस पत्थर पर बैठें हुए हम दोनों.. 
वो छल-छल  बहता पानी,
 वो सूरज से आती सुबह की किरणें, 
वो किरणों से चमकता नदी का पानी.. 
वो आसमाँ में उड़ते पंछी, 
वो पानी में तैरतें हुए बतक और मछलियां, वो पत्थर से टकराकर हमें छूती हुई शीतल जल की बूंदें, 
वो पहाड़ीयों को काटकर आती हुई बदन को छूती हुई ठंडी हवाएं, 
चारों ओर हज़ारों रंग भरते हुए नज़ारें.. 
न कोई देखने वाला, 
न कोई सुनने वाला,
 वो हमारे बीच की खामोशी, 
उन खामोशी में अंगड़ाइयां लेती हुई हज़ारों बातें 
और हर बात को अंजाम देते हुए ये चंद लब्ज़..

"तू इश्क-इश्क सा मेरे रूह में आ के बस जा, जिस ओर तेरी शहनाई उस ओर मैं भागूं रे..." 


Sunday, January 26, 2020


अच्छा लगता है मुझे ...
रात की शिकायतो को जब  सुबह तुम अपनी आंखों से जताती हो .....
अच्छा लगता है मुझे ...
रात के बिखरे काजल को मैं थोड़ा और बिखेर देता हूं ....
अच्छा लगता है मुझे ...
सुबह जल्दी जल्दी में सँवारे बालो को मैं फिर  खोल देता हूं...
अच्छा लगता है मुझे ...
तेरे वजूद में खुद के होने का अहसास ....

Friday, January 3, 2020

इक्कीस की सदी को बिसवा साल लग गया

उम्र की डोर से, 
फिर एक मोती झड़ गया है....
तारीख़ों के जीने से,
दिसम्बर फिर उतर गया है..
कुछ चेहरे घटे,चंद यादें जुड़ी,
गए वक़्त में....
उम्र का पंछी नित दूर, 
और दूर निकल गया है..
गुनगुनी धूप, 
और ठिठुरी रातें जाड़ों की...
गुज़रे लम्हों पर,
झीना-झीना सा,
इक पर्दा गिर गया..
ज़ायका लिया नहीं,
और फिसल गई ज़िन्दगी...
वक़्त है कि सब कुछ समेटे,
बादल बन उड़ गया..
फिर एक दिसम्बर गुज़र गया..
बूढ़ा दिसम्बर जवां जनवरी के कदमों मे बिछ गया
लो इक्कीसवीं सदी को बीसवॉं साल लग गया.....

Thursday, September 5, 2019

वो स्त्री  जो सचमुच तुमसे प्यार करती है 
तुमको छोड़कर जाने का फैसला 
एक पल में नहीं करती। महीनों वो खुद को समझाती है ,,,
और जिस दिन वो तुम्हारे बिना खुद को 
सम्भालना और समझाना सीख जाती है , 
ठीक उसी पल वो तुमको छोड़कर सिर्फ़ ख़ुद की हो जाती है। 
तुमको उस दिन से डरना चाहिए जिस दिन स्त्री प्रेम और स्वाभिमान में से ,  
सवाभिमान को चुनती है। 
 क्योंकि उसी दिन स्त्री तुमसे मिले प्रेम को हीरे की तरह दिल में रख लेती है औऱ सारी दुनिया के लिए दिल के दरवाज़े सदा के लिए बंद कर लेती है। 
ये उसका अंतिम फैसला होता है तुमको छोड़ कर जाने का।

पहले वो बार-बार तुमको एहसास कराती है कि " अब पहले जैसा प्रेम महसूस नहीं हो रहा है  , प्रेम को कुछ वक्त दिया करो "

 तुम उसे और उसकी बातों को लापरवाही से टाल देते हो , और एक दिन वो तमाम यादें और प्रेम समेट कर तुमसे दूर चली जाती है।

एक बार तुम से मिला प्यार छोड़ और उस प्यार को समेट कर जा चुकी स्त्री कभी पहली सी नहीं रह जाती।

 तुम्हारे जिस प्रेम ने उसे कोमल और संतुलित बनाया था , तुम्हारा वही प्रेम उसे जीवन भर के लिए कठोर और निष्ठुर बना देता है।

 तुम लापरवाही में कभी जान ही नहीं पाते कि मरते दम तक वो स्त्री दुबारा वैसी कभी नहीं बन पाती,  जैसी वो तुमसे मिलने से पहले थी।

अपनी मौज में चलते तुम कभी जान ही नहीं पाते कि -
"तुम एक हरी-भरी , खिली औऱ खिलखिलाती स्त्री और उस के प्यार और जस्बात की हत्या कर चुके हो..."

- मन का रेडियो

Tuesday, June 25, 2019

नदियो की उम्र न होती..
 जब तक बहता जल है तब तक रवानी रहती है.. ऊँ
डूबोइए और साँसों को बहता देखिये..
 बादल भी समेट लेती हैं.. 
उड़ती चिड़ियाँ भी... 
सूखे पत्ते भी लहरों पर आगे-आगे दौड़ते हैं और पीछे-पीछे नदी का वेग उमड़ता रहता है... कौ
कहता है नदियाँ पायल नहीं पहनती हैं..