Friday, February 14, 2020

तू नज़्म नज़्म सा मेरे, होठों पे ठहर जा
मैं ख़्वाब ख़्वाब सा तेरी, आँखों में जागु रे...

 तुमको चुराकर ले चलूँ कहीं दूर,
 किसी ऐसी जगह जहाँ न कोई  शोर हो, न कोई खलेल.. 
बस एक पहाड़ी, 
पहाड़ी के पास वो बहती नदी, 
बहती नदी के किनारे वो एक बड़ा सा पत्थर,
 उस पत्थर पर बैठें हुए हम दोनों.. 
वो छल-छल  बहता पानी,
 वो सूरज से आती सुबह की किरणें, 
वो किरणों से चमकता नदी का पानी.. 
वो आसमाँ में उड़ते पंछी, 
वो पानी में तैरतें हुए बतक और मछलियां, वो पत्थर से टकराकर हमें छूती हुई शीतल जल की बूंदें, 
वो पहाड़ीयों को काटकर आती हुई बदन को छूती हुई ठंडी हवाएं, 
चारों ओर हज़ारों रंग भरते हुए नज़ारें.. 
न कोई देखने वाला, 
न कोई सुनने वाला,
 वो हमारे बीच की खामोशी, 
उन खामोशी में अंगड़ाइयां लेती हुई हज़ारों बातें 
और हर बात को अंजाम देते हुए ये चंद लब्ज़..

"तू इश्क-इश्क सा मेरे रूह में आ के बस जा, जिस ओर तेरी शहनाई उस ओर मैं भागूं रे..."