तो एक भावशून्यता जकड़ लेती है..
न शब्द मिलते हैं..
और न ही ये समझ आता है
कि आसपास क्या हो रहा है...
बस एक झूठी सी आस लगी रहती है
कि..काश एक बार और आंखें खोल दें..
काश एक बार और सांस ले लें...
और ये आस श्मशान तक साथ ही जाती है...
और जब अग्नि इस आस को तोड़ देती है...
तो भारी मन से वहाँ से घर लौटते वक्त
बस एक और आस रह जाती है...
कि काश ये कोई बुरा सपना हो...
और जैसे ही मैं जागूँ...
सब कुछ पहले जैसा ही हो...
और ये खयाल कि अब सब कुछ पहले जैसा नहीं होने वाला..
आंख से आंसू निकाल देता है...