आशिक़ी की किताबों में,
ये अनलिखा करार होना चाहिए,
इश्क़ के हिस्से में भी तो जनाब,
इतवार तो होना ही चाहिए.......
मेरी तम्मनाये करे कब तक इंतजार कोई भी दुआ इसे गले क्यों नही लगती, अगर हो जाती मुरादें पल मैं पुरी .... तो मुरादें नही ख्वाहिसे कहलाती....
कुछ है शिकायत खुद से,
कुछ है मायूसी सी खुद से,
शायद रखना चाहता हूँ
थोड़ी बहुत मायूसी मैं खुद ही ..
थोडा थोडा चुप सा आकाश खुद ही देखना चाहता हूँ या,
खुद ही वक़्त के बीच आकाश को इधर उधर गुम भी कर देना चाहता हूँ..
फिर पता नहीं कैसे क्लासरूम की खिड़कियों के बीच..
उड़ते बादलों के नैन-मटक्के स्पार्क करते हैं..
च्छ्ह्ह च्छ्ह्ह करते करते बादल
थोड़ी शरारत तो अफ्फोर्ड करवा ही देते हैं..
फिर उसके बाद खेल और नैन-मटक्का शुरू..
टेबल पर ढेर सारे अखबारी कतरनों और रफ़ कागज़ों पर,
कटिंग-ओवरराइटिंग करते करते,
बस यूँ ही स्याही रंगीन करता जाता हूँ..
नाम तेरा और बातें मेरी..
बातें जो अब तक वक़्त के कैलेंडरों के मद्धिम आंच पर सुलगते रहे ..
हम चुप हैं कि दिल सुन रहे हैं वाला गाना गुनगुना लेता हूँ..
फिर अचानक से दुनियादारी के आहटों के बीच सकपकाते हुए हडबडाते हुए
रफ़ कागजों को तितर-बितर करते हुए समेटने लगता हूँ..
और रफ़ कागज़ों में में सुर्ख रंगीन स्याही मेरी उँगलियाँ खींचती रहती हैं..
दबी सी हंसी के बीच..
पिन-ड्राप-साइलेंट वाले क्लास के बीच दबी सी हंसी ..
कोई कमी'ना छोड़ना है
कोई कमी'नी छोड़नी है टाइप शरारत स्याही और उँगलियों के बीच..
सोलह बरस की बाली उमर को सलाम वाला गाना गुनगुनाते हुए..
मायूसी को थोडा न्यूट्रल करते हुए..
बस जिंदगी का माहौल बनाये रखता हूँ..
एक बात तो बताई ही नहीं,
कतरन कहीं गुम हो गया है,
लेकिन मैंने एक जगह ये भी लिखा था कि
" ऐसा तुम भी करती हो क्या".....
Anonymous
जो बात वहाँ से भी कभी बताई नहीं गई वो कुछ यूँ हुआ करती थी..
बैंच पर वो पेन घूँट घूँट कर लिखे तेरे नाम की हाथ में उल्टी छाप बना दिया करती थी और ना जाने किताब के कितने पन्ने वो आखरी पन्ना बनकर फट्ता गया जिसपे ना जाने कितने दिलके दो हिस्से बनाकर 2 अक्षर लिखा करती थी एक तेरा एक मेरा..
उम्र ज़रूर बढ़ती जाती है लेकिन जो हमेशा यौवन रहता है वो इश्क़ है.. जैसे माँ बाबा उनके ज़माने के गाने सुनते ही फिर से उस दौर में चले जाते है वैसे ही हम भी 90's के दौर में जाते ही वो टीन एज महसूस करने लगते है.. क्यूँकी दिल्लगी की कोई उम्र नहीं होती और जो उम्र के साथ दबाई जाये वो दिल्लगी नहीं एक समझौता है..
मायूसी को न्यूट्रल करने से अच्छा है कुछ पल फुर्सत के खुद के लिये जी ले..
माहौल बनाना और माहौल बन जाना में कितना अंतर है ये खुद आपका अंतर आपको बता ही देगा..
आज भी एक जगह वो नाम लिख देती हूँ बस अब कागज़ या हाथ नहीं होता क्यूँकी बात सीधी अब मन की है और चुपके से उसको इशारा करते हुए मुस्कुरा देती हूँ कि
"हां मैं भी ऐसा करती हूँ" ❤
- YJ