जिसको भी हासिल किरदार ना हुआ मेरा
वो मेरे दामन ए वजूद को दाग़दार कह गए ...!!!
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मेरी तम्मनाये करे कब तक इंतजार कोई भी दुआ इसे गले क्यों नही लगती, अगर हो जाती मुरादें पल मैं पुरी .... तो मुरादें नही ख्वाहिसे कहलाती....
वो मुझे मेहंदी लगे हाथ दिखा कर रोई, मैं किसी और की हूँ बस इतना बता के रोई!
शायद उम्र भर की जुदाई का ख्याल आया था उसे, वो मुझे पास अपने बैठा के रोई !
कभी कहती थी की मैं न जी पाऊँगी बिन तुम्हारे, और आज ये बात दोहरा के रोई!
मुझसे ज्यादा बिछड़ने का ग़म था उसे, वक़्त-ए -रुखसत वो मुझे सीने से लगा के रोई!
मैं बेक़सूर हूँ कुदरत का फैसला है ये, लिपट कर मुझे बस इतना बता के रोई।
मुझ पर दुःख का पहाड़ एक और टूटा, जब मेरे सामने मेरे ख़त जल के रोई।
मैं तन्हा सा खुद में सिमट के रह गया, जब वो पुराने किस्से सुना के रोई।
मेरी नफ़रत और अदावत पिघल गई एक पल में, वो वेबफ़ा थी तो क्यों मुझे रुला के रोई।
सब गिले-शिकबे मेरे एक पल में बदल गए, झील सी आँखों में जब आँसू के रोई।
कैसे उसकी मोहब्बत पर शक़ करूँ मैं, भरी महफ़िल में वो मुझे गले लगा के रोई !....
मुझे अच्छा लगता है मर्द से मुकाबला ना करना और उस से एक दर्जा कमज़ोर रहना -
मुझे अच्छा लगता है जब कहीं बाहर जाते हुए वह मुझ से कहता है "रुको! मैं तुम्हे ले जाता हूँ या मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ "
मुझे अच्छा लगता है जब वह मुझ से एक कदम आगे चलता है - गैर महफूज़ और खतरनाक रास्ते पर उसके पीछे पीछे उसके छोड़े हुए क़दमों के निशान पर चलते हुए एहसास होता है उसे मेरा ख्याल खुद से ज्यादा है
मुझे अच्छा लगता है जब गहराई से ऊपर चढ़ते और ऊंचाई से ढलान की तरफ जाते हुए वह मुड़ मुड़ कर मुझे चढ़ने और उतरने में मदद देने के लिए बार बार अपना हाथ बढ़ाता है -
मुझे अच्छा लगता है जब किसी सफर पर जाते और वापस आते हुए सामान का सारा बोझ वह अपने दोनों कंधों और सर पर बिना हिचक किये खुद ही बढ़ कर उठा लेता है - और अक्सर वज़नी चीजों को दूसरी जगह रखते वक़्त उसका यह कहना कि "तुम छोड़ दो यह मेरा काम है "-
मुझे अच्छा लगता है जब वह मेरी वजह से शर्द मौसम में सवारी गाड़ी का इंतज़ार करने के लिए खुद स्टेशन पे इंतजार करता है -
मुझे अच्छा लगता है जब वह मुझे ज़रूरत की हर चीज़ घर पर ही मुहैय्या कर देता है ताकि मुझे घर की जिम्मेदारियों के साथ साथ बाहर जाने की दिक़्क़त ना उठानी पड़े और लोगों के नामुनासिब रावैय्यों का सामना ना करना पड़े -
मुझे बहोत अच्छा लगता है जब रात की खनकी में मेरे साथ आसमान पर तारे गिनते हुए वह मुझे ढंड लग जाने के डर से अपना कोट उतार कर मेरे कन्धों पर डाल देता है -
मुझे अच्छा लगता है जब वह मुझे मेरे सारे गम आंसुओं में बहाने के लिए अपना मज़बूत कंधा पेश करता है और हर कदम पर अपने साथ होने का यकीन दिलाता है -
मुझे अच्छा लगता है जब वह खराब हालात में मुझे अपनी जिम्मेदारी मान कर सहारा देने केलिए मेरे आगे ढाल की तरह खड़ा हो जाता है और कहता है " डरो मत मैं तुम्हे कुछ नहीं होने दूंगा" -
मुझे अच्छा लगता है जब वह मुझे गैर नज़रों से महफूज़ रहने के लिए समझाया करता है और अपना हक जताते हुए कहता है कि "तुम सिर्फ मेरी हो " -
लेकिन अफसोस हम में से अक्सर लड़कियां इन तमाम खुशगवार अहसास को महज मर्द से बराबरी का मुकाबला करने की वजह से खो देती हैं
फिर ۔۔۔۔۔۔۔۔
जब मर्द यह मान लेता है कि औरत उस से कम नहीं तब वह उसकी मदद के लिए हाथ बढ़ाना छोड़ देता है - तब ऐसे खूबसूरत लम्हात एक एक करके ज़िन्दगी से कम होते चले जाते हैं , और फिर ज़िन्दगी बे रंग और बेमतलब हो कर अपनी खुशीया खो देती है
तुझ संग बैर लगाया ऐसा
रहा ना मैं फिर अपने जैसा ......
अपना नाम बदल दूं या तेरा नाम छुपा लूं
या छोड़ के सारी आग मैं वैराग उठा लूं .....
ये काली रात जकड़ लूँ ये ठंडा चंदा पकड़ लूँ
दिन रात के बैरी भेद का रुख मोड़ के मैं रख दूँ .....
तुझ संग बैर लगाया ऐसा
रहा ना मैं फिर अपने जैसा ......
मेरा नाम इश्क़ तेरा नाम इश्क़
लाल_इश्क़ ......
मेरी हर खुशी में हो तेरी खुशी
मोहब्बत में ऐसा ज़रूरी नहीं.......
प्यार करने से पहले ऐसा कोई वादा तो नहीं लिया था तुमसे के जो मुझे अच्छा लगे वो ही तुम कहोगें या करोगें और ना ही ऐसा कोई वादा किया था मैंने के मैं हर वक़्त हर हाल में तुमको खुश रखूँगी! प्यार तो प्यार होता है उसमें कोई खुशामत नहीं होती, खूबी के साथ ऐब को भी प्यार के धागे में मोतियों की तरह सजाना होता है... अपने आप में कभी मस्त तो कभी दुःखी तो तभी भी होते है जब अकेले होते है, फिर अगर प्यार से किसीका दामन थाम भी लिया, तो फिर गम या उम्मीद की शिकायत कैसी? जुड़ने से वो इंसान, उसकी बातें, उसका रंग ढंग, उसका रवैया, उसका रहन सहन, उसकी सोच, उसके जज्बात, उसका अस्तिवत थोड़ा बदल ज़रूर जाता है लेकिन मिट तो नहीं जाता! फिर उसे अपने खुद के किरदार से निकालकर जैसा तुमकों पसंद हो वैसा बनाने के ये ज़िद कैसी?
"मोहब्ब्त है ये जी हुज़ूरी नहीं..............."
हो सकता है मेरा तरीका बदल गया हो, वक़्त के साथ सहलाने का सलीका बदल गया हो, लेकिन फितरत नहीं! क्यों किसी एक को भी ये पुरवार करने की ज़रूरत पड़े के बदले वक़्त के साथ हम नहीं बदले! हो सकता है मनाने का ढंग बदल गया हो क्योंकि मानने मनाने के ज़ोन से कबके आगे निकल चुके है लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं के चाहत बदल गई है। इश्क़ है तो इश्क़ है और रहेगा चाहें रूठ जाओ या खुद ही मान जाओ, मोहब्ब्त है कोई समझौता तो नहीं! बाकी समझाना मेरे बस की नहीं, बस इतना समझ लो के "कैसे खुश तुझे रखूं नहीं पता, पर चाहती हूं तेरे लबों पे हँसी....."
मोहब्बत है ये जी हुज़ूरी नहीं.....
-YJ
हर मोर्चे पर लड़ती दिख जाती है वो ...
कभी भावनाओं से लड़ने का संघर्ष ...
कभी अपने हक को पाने का संघर्ष ...,
कभी ज़िन्दगी को जीने का संघर्ष ....
कभी अपनी चाहत को पाने का संघर्ष ...,
पर इच्छाशक्ति की स्वामिनी बन ...
हर मोर्चे पर परचम लहरा जाती है वो ...
फिर अंत में अपनो से ही हार जाती है वो ...,
हथियार तो तब भी नही डालती वो ....
बस रिश्ते जीवंत करते-करते छलनी हो जाती है वो ..
नारी है वो ...एक अदम्य साहस की परिभाषा है वो ....
लिखना फिर से शुरू करना ऐसा है जैसे कोई पिंजड़े से किसी बेबस पंछी का आज़ादी की उड़ान की तरफ पहला पंख फैलाना... आज मैं भी इतने सालो बाद फिर इस आगंन मैं अपनी शब्दो के साथ शुरू करना चाहती हूँ।
काग़ज़ की कश्ती थी पानी का किनारा था,
खेलने की मस्ती थी ये दिल अवारा था,
कहाँ आ गए इस समझदारी के दलदल में,
वो नादान बचपन भी कितना प्यारा था।