उम्र की डोर से,
फिर एक मोती झड़ गया है....
तारीख़ों के जीने से,
दिसम्बर फिर उतर गया है..
कुछ चेहरे घटे,चंद यादें जुड़ी,
गए वक़्त में....
उम्र का पंछी नित दूर,
और दूर निकल गया है..
गुनगुनी धूप,
और ठिठुरी रातें जाड़ों की...
गुज़रे लम्हों पर,
झीना-झीना सा,
इक पर्दा गिर गया..
ज़ायका लिया नहीं,
और फिसल गई ज़िन्दगी...
वक़्त है कि सब कुछ समेटे,
बादल बन उड़ गया..
फिर एक दिसम्बर गुज़र गया..
बूढ़ा दिसम्बर जवां जनवरी के कदमों मे बिछ गया
लो इक्कीसवीं सदी को बीसवॉं साल लग गया.....
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